शीश गंग अर्धंग पार्वती,
सदा विराजत कैलासी ।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं,
धरत ध्यान सुर सुखरासी ॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन,
बह बैठे हैं शिव अविनाशी ।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर,
राग रागिनी मधुरासी ॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत,
बोलत हैं वनके वासी ।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर,
भ्रमर करत हैं गुंजा-सी ॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु,
लाग रहे हैं लक्षासी ।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत,
करत दुग्ध की वर्षा-सी ॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित,
चन्द्रकान्त सम हिमराशी ।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित,
सेवत सदा प्रकृति दासी ॥
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत,
गान करत श्रुति गुणराशी ।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन,
कछु शिव हमकूँ फरमासी ॥
ऋद्धि-सिद्धि के दाता शंकर,
नित सत् चित् आनन्दराशी ।
जिनके सुमिरत ही कट जाती,
कठिन काल यमकी फांसी ॥
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर,
प्रेम सहित जो नर गासी ।
दूर होय विपदा उस नर की,
जन्म-जन्म शिवपद पासी ॥
कैलासी काशी के वासी,
विनाशी मेरी सुध लीजो ।
सेवक जान सदा चरनन को,
अपनो जान कृपा कीजो ॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय,
अवगुण मेरे सब ढकियो ।
सब अपराध क्षमाकर शंकर,
किंकर की विनती सुनियो ॥
शीश गंग अर्धंग पार्वती,
सदा विराजत कैलासी ।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं,
धरत ध्यान सुर सुखरासी ॥
भगवान शिव की महिमा सुनकर एक बार ऋषियों ने सूत जी से कहा- हे सूत जी आपकी अमृतमयी वाणी और आशुतोष भगवान शिव की महिमा सुनकर तो हम परम आनन्दित हुए।
भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था वह बड़ा प्रतापी और दानी था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था।
एक नगरमें एक बुढ़ियाके सात पुत्र थे, सातौके विवाह होगए, सुन्दर स्त्री घर में सम्पन्न थीं। बड़े बः पुत्र धंधा करते थे बोटा निठल्ला कुछ नहीं करता था और इस ध्यान में मग्न रहता था कि में बिना किए का खाता हूं।
एक समय समस्त प्राणियों का हित चाहने वाले मुनियों ने नैमिषारण्य बन में एक सभा की उस समय व्यास जी के शिष्य सूत जी शिष्यों के साथ श्रीहरि का स्मरण करते हुए वहाँ पर आये।