हिन्दू धर्म में एकादशी और प्रदोष व्रत का विशेष महत्व है। ये व्रत धार्मिक श्रद्धा, मानसिक शांति और आध्यात्मिक लाभ के लिए किए जाते हैं। साल में 24 एकादशी और 24 प्रदोष व्रत आते हैं जो प्रत्येक माह के शुक्ल और कृष्ण पक्ष में मनाए जाते हैं। कई लोग इन व्रतों को नियमित रूप से करते हैं। लेकिन, सवाल यह उठता है कि इन व्रतों को कितने समय तक करना चाहिए और उनका समापन कब करना चाहिए। शास्त्रों में व्रत के आरंभ, पालन और समापन के नियम बताए गए हैं। तो आइए जानते हैं इन व्रतों से जुड़ी विस्तृत जानकारी।
एकादशी व्रत का आरंभ मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की उत्पन्ना एकादशी से करना सबसे उत्तम माना गया है। शास्त्रों के अनुसार इस तिथि पर माता एकादशी का जन्म हुआ था। इसलिए, यह तिथि व्रत आरंभ करने के लिए शुभ मानी जाती है। यह व्रत मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के साथ-साथ भगवान विष्णु की कृपा पाने के लिए किया जाता है।
एकादशी व्रत का पालन कम से कम 5 वर्षों और अधिकतम 11 वर्षों तक करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार व्रत का आरंभ 12 वर्ष की आयु के बाद करना चाहिए। इससे पहले व्रत का पालन बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रभाव डाल सकता है। बता दें कि जो व्यक्ति 11 वर्षों तक एकादशी व्रत करता है उसे भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है।
समापन के लिए समय और अवधि दोनों का ध्यान रखना आवश्यक है।
प्रदोष व्रत का शुभारंभ किसी भी महीने की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि से किया जा सकता है। हालांकि, शास्त्रों में श्रावण माह और कार्तिक माह को प्रदोष व्रत आरंभ करने के लिए सबसे उत्तम माना गया है। इन महीनों में भगवान शिव की उपासना विशेष फलदायी मनाई जाती है।
प्रदोष व्रत को आप अपनी श्रद्धा और इच्छा के अनुसार जितने चाहें उतने साल तक रख सकते हैं। हालांकि, शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को 11 त्रयोदशी तिथियों या 26 त्रयोदशी तिथियों तक रखना शुभ माना जाता है। ऐसा करने से भगवान शिव की कृपा से सभी कष्ट दूर होते हैं।
एकादशी और प्रदोष व्रत धार्मिक महत्व के साथ-साथ आत्मिक और मानसिक शुद्धि प्रदान करते हैं। इन व्रतों को विधिपूर्वक आरंभ करना नियमित रूप से पालन करना और सही समय पर उद्यापन करना आवश्यक है। शास्त्रों के नियमों का पालन करते हुए व्रत करने से व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ और ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है।
हिंदू धर्म में भगवान हनुमान को संकटमोचन, बल-बुद्धि-विधाता और रामभक्ति के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि जिनके जीवन में दुःख, भय या बाधाएं लगातार बनी रहती हैं, उनके लिए हनुमानजी की शरण सबसे बड़ा सहारा है।
शांति केवल बाहर के वातावरण में नहीं, हमारे भीतर भी जरूरी है। जब मन अशांत हो, जीवन में बाधाएँ बार-बार आएं या मानसिक बेचैनी बनी रहे। तब शास्त्र हमें एक उपाय बताते हैं: शांति पूजा।
हिंदू धर्म में गीता को केवल एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला माना गया है। यह महाभारत का ही एक हिस्सा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को धर्म, कर्म, नीति और जीवन के रहस्यों का उपदेश दिया।
गुरुवार का दिन भगवान विष्णु को समर्पित है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन भगवान विष्णु की उपासना करने से न सिर्फ जीवन की परेशानियाँ दूर होती हैं, बल्कि सुख-शांति और समृद्धि भी आती है।