Logo

माघ शुक्ल की जया नाम की एकादशी (Magh Shukal Ki Jya Naam Ki Ekadashi)

माघ शुक्ल की जया नाम की एकादशी (Magh Shukal Ki Jya Naam Ki Ekadashi)

पाण्डुनन्दन भगवान् कृष्ण से हाथ जोड़ कर नम्रता पूर्वक बोले हे नाथ ! अब आप कृपा कर मुझसे माघ शुक्ल एकादशी का वर्णन कीजिए उस व्रत को करने से क्या पुण्य फल होता है।

भगवान् कृष्ण ने कहा-राजन् ! इस एकादशी का नाम जया है और यह अक्षय फल को देने वाली है। इसका व्रत करने वाला ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है और अन्तकाल में उसे धर्म और मोक्ष की प्राप्ति होती है इस व्रत द्वारा मनुष्य कुयोनि से छूट जाते हैं। अब हम तुम्हें इसकी एक पौराणिक कथा सुनाते हैं जो पद्म पुराण में लिखी है ध्यान देकर सुनो।

एक समय की कथा है कि देवराज इन्द्र अपनी नगरी में अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्वक राज्य कर रहे थे। वहाँ के देवता सोमपान के प्रताप से हृष्ट-पुष्ट एवं सौन्दर्य की खान बन रहे थे। अप्सराओं से युक्त पारिजात पुष्प से सुशोभित नन्दन कानन में क्रीड़ा कर रहे थे।

महाराज इन्द्र ऐश्वर्य से परिपूर्ण अप्सराओं और गन्धवों के साथ नाच और गान में उन्मत्त हो रहे थे। गन्धर्व गान कर रहे थे अप्सरायें नाच रही थीं। गन्धवों में अत्यन्त विख्यात पुष्पदन्त उनके पुत्र चित्रसेन की स्त्री मालिनी जिसका पुत्र माल्यवान् अत्यन्त सुन्दर और स्वरूपवान् था इत्यादि-इत्यादि भी उपस्थित थे। माल्यवान् के सुन्दर स्वरूप का अवलोकन कर पुष्पवती नामक एक अत्यन्त रूपवती गन्धर्व कन्या कामदेव की पीड़ा से व्यथित हो उठी और अपने सुन्दर स्वरूप और हाव भाव एवं दिव्य कटाक्षों से माल्यवान् के हृदय को व्यथित एवं कामासक्त कर दिया।

पुष्पवती की सुन्दरता निःसन्देह ही बहुत विलक्षण थी जिसके बाहुपाश निःसन्देह ही कामपाश को भी लज्जित कर रहे थे। मुख चन्द्र के समान प्रकाशमान्, नेत्र बड़े-बड़े और कान तक फैले हुए थे। कानों के कुण्डल अनुपम शोभा का प्रदर्शन करा रहे थे। उसकी ग्रीवा एवं उसमें सटे हुए दिव्य कण्ठाहार आदि अपनी अनुपम शोभा का चमत्कार दिखा रहे थे तथा ऊँचे- ऊंचे सुन्दर उरोज स्वर्ण कलशों को लिज्जत कर रहे थे। उदर अत्यन्त ही सूक्ष्म तथा कटिप्रदेश मुष्टिमेय या नितम्ब ऊँचे, विस्तीर्ण, सुन्दर जघनस्थल एव लाल कमलों को लज्जित करने वाले चरण इत्यादि माल्यवान् के नेत्रों में चकाचौंध पैदा कर रहे थे।

यद्यपि ये दोनों ही प्रेमी एक दूसरे पर अत्यन्त ही अनुरक्त हो रहे थे। तथापि भयवश इन्द्र को प्रसन्न करने के लिये बाध्य थे। अस्तु, अन्य गन्धर्वों और अप्सराओं के साथ मिलकर कार्य आरम्भ किया। परन्तु काम के वशीभूत होने के कारण इनका नृत्य एवं गान सम्यक् नहीं उतर रहा था इनकी चेष्टाओं एवं भाव-भंगिमा से चतुर देवराज इन्द्र पर इनका अनुराग तत्काल ही प्रकट हो गया। इन्द्र ने इसको अपना अपमान समझा और उन पर क्रोध प्रकाशन कर उन्हें दारुण शाप दे डाला।

इन्द्र ने कहा-ऐ मेरी आज्ञा को भंग करने वाले पापात्मा मूखें ! तुम दोनों ही पिशाच हो जाओ और मृत्य लोक में जाकर अपनी-अपनी करनी का फल भोग करो। शाप सुनकर दोनों ही दुःखी हुए परन्तु अब क्या हो सकता था  दो के दोनों ही हिमालय पर्वत पर पिशाच हो अपना काल यापन करने लगे। इस दुःख में पड़ कर वे लोग अत्यन्त ही व्याकुल और- चिंतित् हो उठे। उन्हें क्षण मात्र को भी निद्रा नहीं आती थी। शीत और उष्ण के प्रभाव में पड़कर वे नाना प्रकार के कष्टों को भी भोगते और अपने-अपने भग्य को कोस रहे थे।

इस प्रकार अनेकों चिन्ताओं से व्याकुल हो वे इस भयंकर जीवन से ऊब गये। एक दिन उन लोगो को खाने के लिए कुछ नहीं मिला और वे दोनों दिन भर यो हीं रह गये। रात को चिंता एवं शीत के कारण नींद भी नहीं आई। दैवयोग से वह जया नाम एकादशी का दिन था। अस्तु द्वादशी के दिन सूर्योदय होते ही इनका पिशाचत्व नष्ट हो गया और उनका वही प्राचीन दिव्य रूप उन्हें प्राप्त हो गया। देवता और अप्सरायें उनकी स्तुति करने लगीं। उन दोनों ने जाकर देवराज इंद्र को प्रणाम किया। देवराज उनका दिव्य रूप देख आश्चर्य चकित हो गये और उनसे पूछा-कहो तुम्हारा पिशाचत्व किस प्रकार नष्ट हुआ?

माल्यवान् ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, प्रभो ! यह जया नाम की एकादशी के अनजाने व्रत करने का पुण्य फल है, उनकी ऐसा वाणी सुन देवराज इन्द्र ने कहा- भगवान् विष्णु की भक्ति एवं जया के अनुग्रह – से तुम्हारा पिषाचत्व नष्ट हो गया और तुम सब देवताओं के भी वन्दना के योग्य हो गये। अस्तु अब तुम दोनों आनन्दपूर्वक देवलोक में आनन्द करो, हे राजन् ! देखो कैसा प्रभाव दिखाया इस जया एकादशी व्रत के पुण्य फल ने। इसलिये इस जया एकादशी व्रत को अवश्य करना चाहिये। क्योंकि यह व्रत अनेकों फलों को देने वाला है। भक्तिपूर्वक जया का व्रत करने वाला निःसन्देह ही सौ वर्ष पर्यन्त स्वर्ग में निवास ही करता है।

........................................................................................................
फागुन की रुत फिर से आई, खाटू नगरी चालो (Fagun Ki Rut Phir Se Aayi Khatu Nagri Chalo)

फागुन की रुत फिर से आई,
खाटू नगरी चालो,

ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ (O Ganga Tum,Ganga Behti Ho Kiyon)

करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ?

गाइये गणपति जगवंदन (Gaiye Ganpati Jagvandan)

गाइये गणपति जगवंदन ।
शंकर सुवन भवानी के नंदन ॥

गंगा के खड़े किनारे, भगवान् मांग रहे नैया (Ganga Ke Khade Kinare Bhagwan Mang Rahe Naiya)

गंगा के खड़े किनारे
भगवान् मांग रहे नैया

यह भी जाने
HomeAartiAartiTempleTempleKundliKundliPanchangPanchang