भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है केदारनाथ मंदिर, जो उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। यह मंदिर शिव भक्तों के लिए आस्था का बहुत बड़ा केंद्र है। हर साल लाखों श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते हैं। खास बात यह है कि यह मंदिर साल के सिर्फ 6 महीने ही खुला रहता है। बाकी के 6 महीने बर्फबारी के कारण इसके कपाट बंद रहते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस मंदिर का नाम ‘केदारनाथ’ कैसे पड़ा? ऐसे में आइए आज हम आपको बताते हैं इस मंदिर की महिमा और पौराणिक कथा। तो चलिए शुरू करते हैं…
पौराणिक कथा के अनुसार, जब असुरों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब देवी-देवताओं ने भगवान शिव से सहायता मांगी। भगवान शिव एक शक्तिशाली बैल के रूप में प्रकट हुए। इस बैल का नाम था कोडारम। कोडारम के पास असुरों को खत्म करने की विशेष शक्ति थी। इस बैल ने अपने सींगों और खुरों से असुरों का नाश किया और उन्हें मंदाकिनी नदी में फेंक दिया। समय के साथ कोडारम शब्द बदलकर केदारनाथ बन गया और यही नाम इस पवित्र धाम को दिया गया।
केदारनाथ मंदिर में जो शिवलिंग स्थापित है, वह स्वयंभू यानी खुद से प्रकट हुआ माना जाता है। यही वजह है कि यह मंदिर बहुत अधिक पूजनीय है। मान्यता है कि सबसे पहले इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। महाभारत युद्ध के बाद उन्होंने अपने पापों से मुक्ति के लिए भगवान शिव की तपस्या की थी और यहीं उन्हें दर्शन मिले। लेकिन समय के साथ वह प्राचीन मंदिर लुप्त हो गया। मंदिर का वर्तमान स्वरूप आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा पुनः स्थापित किया गया। उन्होंने 8वीं शताब्दी में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। आज भी मंदिर के पीछे शंकराचार्य जी की समाधि बनी हुई है।
केदारनाथ धाम की सबसे खास बात यह है कि यहां भगवान शिव की पूजा उनके भैंसे के रूप के पिछले हिस्से के रूप में की जाती है। मान्यता है कि यह वही स्थान है जहां भगवान शिव ने अपने उलझे हुए बालों से गंगा को मुक्त किया था। इस मंदिर का उल्लेख प्राचीन ग्रंथ स्कंद पुराण के केदार खंड में मिलता है।
पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव अपने पापों से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शिव की खोज में हिमालय की ओर निकल पड़े। भगवान शिव उनसे बचने के लिए केदार में अंतर्ध्यान हो गए और भैंसे का रूप धारण कर अन्य पशुओं के साथ छिप गए। जब पांडव केदार पर्वत पहुंचे तो भीम ने एक योजना बनाई। उन्होंने विशाल रूप धारण कर अपने पैरों को पर्वत की दो दिशाओं में फैला दिया, ताकि सभी पशु उनके बीच से गुजरें। तभी भैंसे के रूप में भगवान शिव को पहचान कर भीम ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की। भगवान शिव धरती में समाने लगे लेकिन भीम ने उनके पिछले हिस्से को पकड़ लिया। तभी से यहां भगवान शिव की पीठ की आकृति की पूजा होती है।
यह भी माना जाता है कि भगवान शिव के भैंसे रूप का मुख नेपाल में प्रकट हुआ, जहां अब पशुपतिनाथ मंदिर है। वहां भी भगवान शिव की पूजा विशेष रूप से होती है। केदारनाथ पर्वत की श्रृंखला पर भगवान विष्णु के दो अवतार, नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने यहां सदा रहने का वचन दिया। इसके बाद से यह स्थान भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
आपको बता दें की केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य ने कराया था। उनकी समाधि मंदिर परिसर के पीछे स्थित है। मान्यता है कि वे इसी स्थान पर समाधि लेकर धरती में विलीन हो गए थे। शंकराचार्य ने अपने अनुयायियों के लिए गर्म पानी का कुंड भी बनवाया था ताकि वे ठंड से बच सकें।
Iमहाकुंभ मेला हिंदू धर्म के सबसे बड़े पर्वों में से एक है। ये प्रत्येक 12 साल में आयोजित होता है। इसके बीच 6 साल के अंतराल पर अर्धकुंभ और हर 3 साल में कुंभ मेले का आयोजन भी किया जाता है।
कुंभ मेला भारत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विश्व प्रसिद्ध धार्मिक आयोजन है। यह मेला हर 12 साल में चार विशेष स्थानों पर आयोजित किया जाता है: प्रयागराज (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक।
सनातन धर्म में सूर्य देव हमारे आराध्य और साक्षात देवता के रूप में पूजे जाते हैं। नवग्रह में शामिल, ऊर्जा और प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना का विशेष महत्व हमारे शास्त्रों में वर्णित है।
नारियल या श्रीफल हिंदू धर्म के सभी धार्मिक आयोजनों, अनुष्ठानों और पूजा पाठ की सामग्री का सबसे अहम हिस्सा है। कोई भी शुभ कार्य हो सबसे पहले नारियल चढ़ाने से ही उसका आरंभ किया जाता है।