भारतीय परंपरा और संस्कृति में पितृ पक्ष का विशेष महत्व है, जिसमें पूर्वजों को याद करके उनका तर्पण और पिंडदान किया जाता है। पितरों का श्राद्ध करने के लिए कई स्थानों का उल्लेख पुराणों और धर्मशास्त्रों में मिलता है, लेकिन कुछ स्थान ऐसे होते हैं, जहां तर्पण और पिंडदान की विधि अद्वितीय और विशेष मानी जाती है। ऐसा ही एक स्थान है "प्रेतशिला" जहां पिंडदान के बाद लोग ताली बजाकर और जोर-जोर से ठहाका लगाकर एक अनोखी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, प्रेतशिला वेदी पर श्राद्ध और पिंडदान करने का विशेष महत्व बताया गया है। खासतौर पर उन पूर्वजों का, जिनकी मृत्यु अकाल मृत्यु के रूप में होती है, जैसे कि किसी दुर्घटना, युद्ध या अन्य अप्राकृतिक कारण से। यहां पिंडदान के बाद परिजन ताली बजाकर ठहाका लगाते हैं। इस परंपरा के पीछे मान्यता है कि अकाल मृत्यु के कारण किसी की मृत्यु होती है तो उनके परिजन शोक मनाते हैं, लेकिन प्रेतशिला पर पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को तुरंत मोक्ष मिल जाता है और उन्हें भटकना नहीं पड़ता।
प्रेतशिला के बारे में कहा जाता है कि यह एक बड़ी चट्टान है, जिसका संबंध परलोक से माना जाता है। इस शिला की दरारों से पितरों का आगमन होता है और वे अपने परिजनों द्वारा चढ़ाए गए पिंड ग्रहण करके अपने लोक में लौट जाते हैं। गरुड़ पुराण में भी इस स्थान का उल्लेख मिलता है, जहां श्राद्ध और पिंडदान से पितरों को मुक्ति का मार्ग प्राप्त होता है। इस पर्वत की चोटी पर स्थित "प्रेतशिला वेदी" पर पिंडदान करने से भूत-प्रेत योनी में भटक रही आत्माओं को भी मोक्ष प्राप्त होता है।
अकाल मृत्यु से मरे हुए पूर्वजों के लिए प्रेतशिला की वेदी पर पिंडदान करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। पिंडदान की इस प्रक्रिया के बाद, वहां मौजूद परिजन ताली बजाकर तीन बार ठहाका लगाते हैं। इसके पीछे की धारणा यह है कि पिंडदान के बाद पितरों को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और उनके भटकने की स्थिति समाप्त हो जाती है। इस मोक्ष प्राप्ति की खुशी में परिजन ताली बजाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।
यह परंपरा और मान्यता प्राचीन समय से चली आ रही है। पिंडदान करने के बाद जब परिजन ताली बजाकर ठहाका लगाते हैं, तो इसका अर्थ यह होता है कि जिस दिन पितरों की मृत्यु होती है, उस दिन उनके घर के लोग रोते हैं, लेकिन जब उन्हें मोक्ष मिल जाता है, तो वे खुश होते हैं और इस खुशी का इजहार ताली बजाकर करते हैं। यह परंपरा बताती है कि मृत्यु के बाद आत्मा को शांति और मोक्ष प्राप्त होना सबसे बड़ा सुख होता है।
यहां के स्थानीय पंडा शिव कुमार पांडेय बताते हैं कि प्रेतशिला पर 365 दिन पिंडदान का विधान है। यहां दो प्रमुख स्थान हैं: ब्रह्म कुंड और प्रेतशिला। पिंडदान करने वाले व्यक्ति 34 पिंड बनाते हैं, जिन्हें दोनों स्थानों पर विसर्जित किया जाता है। इस अनुष्ठान के बाद, वे ताली बजाकर और हंसकर अपने पितरों की आत्मा के मोक्ष का आनंद मनाते हैं। इस प्रकार, प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान की यह परंपरा न केवल धार्मिक मान्यताओं से जुड़ी है, बल्कि यह मृत्यु और मोक्ष की धारणा को एक नए दृष्टिकोण से देखने का संदेश भी देती है।
सीता नवमी का दिन माता सीता के जन्म की खुशी में मनाया जाता है, जो वैशाख महीने की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पड़ता है। इस दिन देवी सीता की पूजा करने से वैवाहिक जीवन में प्रेम और स्थायित्व आता है।
सीता नवमी वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो माता सीता के प्राकट्य के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस दिन सुहागिन महिलाएं व्रत रखती हैं।
बगलामुखी जयंती वैशाख शुक्ल अष्टमी को मनाई जाती है, जो देवी बगलामुखी को समर्पित है। वह दस महाविद्याओं में से आठवीं देवी हैं और श्री कुल से संबंधित हैं। देवी बगलामुखी को पीताम्बरा और ब्रह्मास्त्र भी कहा जाता है। उनकी साधना से स्तंभन की सिद्धि प्राप्त होती है और शत्रुओं को नियंत्रित किया जा सकता है।
देवी बगलामुखी 10 महाविद्याओं में से एक आठवीं महाविद्या हैं, जो पूर्ण जगत की निर्माता, नियंत्रक और संहारकर्ता हैं। उनकी पूजा करने से भक्तों को अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है और जीवन की अनेकों बाधाओं से मुक्ति मिलती है।