जैसे जैसे कुंभ पास आते जा रहा है, लोगों के मन में इससे जुड़ी बातों के बारे में जानने की इच्छा बढ़ रही है। अखाड़ों के बारे में जानने में लोगों को खासा इंटरेस्ट है. इन्हें देखने के लिए तो वे बहुत दूर दूर से संगम नगरी पहुंचने वाले हैं। तो चलिए आज आपको तीन संप्रदायों में से एक उदासीन संप्रदाय के उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़े के बारे में बताते हैं। उदासीन का अर्थ है 'उत्' + 'आसीन', यानी ब्रह्म में लीन। इस अखाड़े के साधु ब्रह्म में लीन रहने का प्रयास करते हैं। इसकी स्थापना 1825 ईस्वी में बसंत पंचमी के दिन हरिद्वार में हर की पौड़ी पर की गई थी। लगभग 200 साल पहले जब इस अखाड़े की नींव रखी गई, तो गंगा तट पर देश के तमाम साधु-संतों का जमावड़ा लगा था।
उदासीन संप्रदाय का दृष्टिकोण और परंपराएं वैष्णव या शैव अखाड़ों से अलग हैं। इस संप्रदाय के अखाड़े किसी भगवान के उपासक नहीं होते हैं। जिस कारण से इस संप्रदाय के अखाड़े में नागा साधु नहीं होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि नागा साधु भगवान शिव के उपासक हैं। उनके लिए मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए भगवान शिव की तप और साधना करना जरूरी है।
श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन की परंपरा रही है, कि यहां पर 4 मुख्य महंत होते हैं. वे अखाड़े से जुड़े सभी प्रकार के फैसले लेते हैं. इन चार संतों के आदेशों का पालन सभी को करना होता है।
मैं तो आई वृन्दावन धाम,
किशोरी तेरे चरनन में ।
माँ शारदे कहाँ तू,
वीणा बजा रही हैं,
मैं तो संग जाऊं बनवास
मैं तो संग जाऊं बनवास
माँ तेरे लाल बुलाए आजा,
सुनले भक्तो की सदाए आजा,