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महाकुंभ के संन्यासी

महाकुंभ के संन्यासी

महाकुंभ में कितने प्रकार के संन्यासी पहुंचे हैं? जानिए कैसे हैं उनके नियम


संगम तट पर लगे महाकुंभ में लाखों साधु-संत अपनी धुनी रमाए प्रभु की भक्ति में लीन हैं। इनमें नागा साधु, अघोरी, साधु, संत शामिल हैं। इन संतों में कई तरह के संन्यासी आए हुए हैं। इन्हें लेकर कई तरह के रहस्य भी लोगों के मन में हैं। नागा और अघोरी के अलावा एक संन्यासी हैं, जिन्हें दंडी स्वामी कहा जाता है। माना जाता है कि कुंभ में अगर इनके दर्शन नहीं किए तो तीर्थ का कोई मतलब नहीं है। तो आइए, इस आर्टिकल में महाकुंभ में पहुंचे विभिन्न संन्यासियों और उनके नियमों के बारे में विस्तार पूर्वक जानते हैं। 


कौन होते हैं अघोरी? 


साधु संत जो तंत्र साधना में लीन होते हैं, उन्हें अघोरी कहा जाता है। ये अक्सर तंत्र क्रियाओं को अंजाम देने के लिए श्मशान के सन्नाटे में दिखाई दे जाते हैं। अघोरी बनने की सबसे पहली शर्त है मन से घृणा को पूरी तरह से खत्म कर देना। वहीं, इसके अलावा जिन चीजों से मनुष्य जाति घृणा करती है, उन चीजों को भी अघोरी आसानी से अपना लेते हैं।


इन संन्यासियों को नहीं छू सकता कोई


महाकुंभ में दंडी संन्यासियों का अखाड़ा भी लगा हुआ है। इन संन्यासियों को छूने का अधिकार किसी को नहीं होता।  इन संन्यासियों  की सबसे बड़ी पहचान उनका दंड होता है, इसे संन्यासी अपनी और परमात्मा के बीच की कड़ी मानते हैं। इस दंड को काफी पवित्र माना जाता है। इन स्वामियों का जीवन काफी कठिन होता है। दंडी शब्द जंगल में बने सर्पीले रास्ते को बताता है। इसलिए, वह संन्यासी जो दंड लेकर हमेशा पैदल चलता रहता है या यात्रा करता है उसे ही दंडी स्वामी कहा जाता है। शास्त्रों में यह दंड भगवान विष्णु का प्रतीक माना गया है, इसे ब्रह्म दंड भी कहा गया है। इस दंड को हर कोई धारण नहीं कर सकता। इस दंड को सिर्फ ब्राह्मण ही ग्रहण करते हैं, शास्त्रों के मुताबिक इसके अपने नियम हैं, जिसका पालन होने पर ही दंड धारण किया जा सकता है।


कौन संन्यासी बनते हैं परमहंस? 


माना जाता है कि संन्यास का लक्ष्य मोक्ष ही होता है। आध्यात्मिक मोक्ष की प्राप्ति के लिए सांसारिक मोक्ष जरूरी है। इसलिए, जो संन्यासी इन नियमों का पालन करते हुए 12 वर्ष बीता लेता है फिर वह अपनी दंडी फेंककर परमहंस बन जाता है। मनुस्मृति और महाभारत जैसे धर्मशास्त्रों में दंडियों के लक्षण और उनकी तपस्या के नियम बताए गए हैं।   यह माना जाता है कि यही संन्यासी आगे चलकर शंकराचार्य बनते हैं।


बिना दंडी के नहीं चल सकते ये संन्यासी


दंड को ये संन्यासी ढककर चलते हैं। ऐसा माना गया कि दंड की शुद्धता और सात्विकता इससे बरकरार रहती है। नियम है कि गाय की आवाज जितनी दूर जाती है, उससे ज्यादा बिना दंड के दंडी स्वामी नहीं चल सकते हैं। दंडी स्वामी को मृत्यु के बाद समाधि दी जाती है। क्योंकि, दीक्षा के दौरान ही उनका भी नागाओं की तरह पिंडदान करवा दिया जाता है।


4 तरह के होते हैं नागा संन्यासी? 


जिस कुंभ में संन्यासी को नागा दीक्षा दी जाती है, उस कुंभ का उसके ऊपर असर भी पड़ता है और इसी आधार पर उन्हें पहचाना भी जाता है। जैसे प्रयागराज में आयोजित कुंभ में अगर कोई नागा दीक्षा लेता है तो उसे राजराजेश्वर नागा कहा जाता है। वहीं, अगर हरिद्वार में कोई नागा संन्यास की दीक्षा लेता है तो उसे बर्फानी नागा कहा जाता है। उज्जैन में संन्यास की दीक्षा लेने वाले साधु को 'क्रोधी नागा या खूनी नागा' कहा जाता है। वहीं, नासिक में संन्यास की दीक्षा लेने वाले नागा को 'खिचड़ी' नागा कहा जाता है। 


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