सनातन धर्म और उसकी परंपराएं जितनी पवित्र हैं, उतनी ही सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टि से तार्किक भी। ऐसे कई रीति-रिवाज, मान्यताएं और नियम हैं जो सनातन परंपरा का हिस्सा हैं। हम सब उन्हें निभाते हैं और समय-समय पर उनका पालन भी करते हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर के बारे में हम नहीं जानते हैं कि यह क्यों है, कैसे हैं, कब से हैं और इनको निभाने का कारण क्या है? ऐसे और भी कई सवाल हैं जो हमारे मन में होंगे और उनका जवाब हमारे पास नहीं है।
ऐसे ही सवालों के शास्त्रानुसार जवाब देने का प्रयास करते हुए भक्त वत्सल ने धर्म ज्ञान सीरीज शुरू की है। धर्म ज्ञान के इस एपिसोड में भगवान के समक्ष दीपक जलाने की परंपरा के बारे में बताया गया है। आइए जानते हैं कि सनातन धर्म में भगवान के आगे दीया जलाने की पवित्र परंपरा क्यों है…
दरअसल सनातन धर्म में अग्नि को देवता माना गया है। अग्नि देव पवित्रता और प्रकाश के प्रतीक हैं। ऐसे में उन्हें साक्षी मानकर देवी-देवता के पूजन के समय दीपक जलाने की परंपरा है। दीपक को भगवान का एक अंश माना गया है।
दीपक जलाकर हम ईश्वर, ऊर्जा और प्रकाश से संबंध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। मान्यता है कि घर में दीपक जलाने से दरिद्रता दूर होती है और घर में मां लक्ष्मी का वास होता है।
हिंदू धर्म में भगवान के सामने दीपक जलाने के पीछे और भी कई कारण हैं। दीपक को ज्ञान, रोशनी और सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है। यह अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है। कहा जाता है अग्नि देव को साक्षी मानकर पूजा करने से हर काम सफल होते हैं। घर में सुख-समृद्धि आती है। दीपक जलाने से घर में मौजूद प्रदूषण दूर होता है।
हमारे पूर्वज या यूं कहें कि पौराणिक काल से ही सनातन धर्म में गाय के घी से दीपक जलाने की परंपरा रही है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो गाय के घी में रोगाणुओं को दूर करने की क्षमता होती है। घी और अग्नि एक साथ मिलकर वातावरण को स्वच्छ और पवित्र बनाने वाली गैसों का निर्माण करते हैं। इससे वायु प्रदूषण भी दूर होता है। इसलिए सनातन धर्म में घर या मंदिर में दीपक जलाने की परंपरा विज्ञान के नजरिए से भी श्रेष्ठ है।
माँ फुलारा शक्तिपीठ या अट्टहास शक्तिपीठ सबसे प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक है, जहां मां सती का "निचला होंठ" गिरा था।
मां बहुला मंदिर बर्धमान स्थित कटवा से 8 किलोमीटर की दूरी पर केतु ग्राम में अजय नदी के तट पर स्थित है।
पश्चिम बंगाल का बकरेश्वर शक्तिपीठ बीरभूम जिले में पापरा नदी के तट पर स्थित है। यह सिउरी शहर से लगभग 24 किमी दूर है।
कालीघाट शक्तिपीठ या दक्षिण काली कोलकाता में स्थित काली देवी का मंदिर है। इस शक्तिपीठ में स्थित प्रतिमा की प्रतिष्ठा कामदेव ब्रह्मचारी ने की थी। यहां माता सती के दाहिना पैर का अंगूठा का गिरा था।