सिद्ध-कुञ्जिका स्तोत्रम् श्रीरूद्रयामल के मन्त्र से सिद्ध है और इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं होती है। इस स्तोत्र को परम कल्याणकारी और चमत्कारी माना जाता है। सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् में शिवजी कहते हैं कि सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् का पाठ करने के बाद कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान का पाठ करने की भी आवश्यक्ता नहीं है। केवल कुञ्जिका के पाठ से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। यह अत्यन्त गुप्त और देवों के लिये भी दुर्लभ है।
सिद्ध-कुञ्जिका स्तोत्रम् का पाठ नवरात्रि में करना बेहद शुभ फलदायी है। इसके पाठ के लिए रात्रि का समय उत्तम माना गया है।
1. इस पाठ को करने से आध्यात्मिक शक्ति का संचार होता है।
2. मनुष्य के अंदर सकारात्मक ऊर्जा आती है।
3. इस स्त्रोत के पाठ से व्यक्ति को ग्रहों के अशुभ प्रभाव से भी मुक्ति मिलती है।
4. सुख- समृद्धि की प्राप्ति होती है।
5. साथ ही व्यक्ति के ऊपर तंत्र- मंत्र के नकारात्मक प्रभाव का असर नहीं होता है।
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥2॥
कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्॥4॥
॥ अथ मन्त्रः ॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥
ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा॥
॥ इति मन्त्रः ॥
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि।
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे॥2॥
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते॥3॥
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि॥4॥
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥5॥
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥6॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं।
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥7॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे॥8॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यंगोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुञ्जिकाया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥ ॐ तत्सत् ॥
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ 2025 में अखाड़े और साधु-संत आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। इनमें से सबसे अलग और अद्भुत दिखने वाले नागा साधु हैं। भस्म लगाए और अपने विशिष्ट स्वरूप में नागा साधु हर किसी का ध्यान खींचते हैं।
हिंदू धर्म की समृद्ध परंपरा में "सोलह संस्कार" का महत्वपूर्ण स्थान है, जो जीवन के हर महत्वपूर्ण पड़ाव को दिशा देते हैं। इन संस्कारों में से एक है अन्नप्राशन, जब बच्चा पहली बार ठोस आहार का स्वाद लेता है।
हिंदू धर्म में 16 संस्कारों का विशेष महत्व है और उनमें नौवां संस्कार है कर्णवेध। यह संस्कार बच्चे के कान छिदवाने का समय होता है जो सामान्यतः 1 से 5 वर्ष की उम्र में किया जाता है।
उपनयन संस्कार, जिसे जनेऊ संस्कार के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में 16 संस्कारों में से 10वां संस्कार है। यह संस्कार पुरुषों में जनेऊ धारण करने की पारंपरिक प्रथा को दर्शाता है, जो सदियों से चली आ रही है। उपनयन शब्द का अर्थ है "अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना"।